आज विश्व की जनसंख्या सात अरब से ज्यादा हो चुकी है। अकेले भारत की जनसंख्या लगभग 1 अरब 35 करोड़ का आकड़ा पार कर चुका है। भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। आजादी के समय भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी जो आज चार गुना तक बढ़ गयी है। परिवार नियोजन के कमजोर तरीकों, अशिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के अभाव, अंधविश्वास और विकासात्मक असंतुलन के चलते आबादी तेजी से बढ़ी है। संभावना है कि 2050 तक देश की जनसंख्या 1.6 अरब हो जायेगी। फिलहाल भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या का 17.5 फीसद है। भूभाग के लिहाज के हमारे पास 2.5 फीसद जमीन है। 4 फीसद जल संसाधन है। जबकि विश्व में बीमारियों का जितना बोझ है, उसका 20 फीसद अकेले भारत पर है। वर्तमान में जिस तेज दर से विश्व की आबादी बढ़ रही है उसके हिसाब से विश्व की आबादी में प्रत्येक साल आठ करोड़ लोगों की वृद्धि हो रही है और इसका दबाव प्राकृतिक संसाधनों पर स्पष्ट रूप से पड़ रहा है। इतना ही नहीं, विश्व समुदाय के समक्ष माइग्रेशन भी एक समस्या के रूप में उभर रहा है क्योंकि बढ़ती आबादी के चलते लोग बुनियादी सुख.सुविधा के लिए दूसरे देशों में पनाह लेने को मजबूर हैं।संयुक्त राष्ट्र के आप्टिनम पापुलेशन ट्रस्ट के अनुसार यदि वर्तमान गति से विश्व की जनसंख्या बढ़ती गयी तो सन् 2050 तक 9.2 अरब लोग इस धरती पर होंगे। वर्तमान में यह संख्या 7 अरब है। हालांकि इसको सभी स्वीकार नहीं करते और यह नहीं मानते कि जनसंख्या इस कदर बढ़ेगी। ताजे आकड़े जो भारत में 1 जनवरी 2020 को देश के जिन 67,385 परिवारों में किलकारी गूंजी, उनके लिए नया साल एक नई खुशी लेकर आया होगा। लेकिन उन सब परिवारों की निजी खुशी से निकला यह संयुक्त आंकड़ा जब एक देश के रूप में हमारे सामने आता है, तो एक अलग ही कहानी बनती है। यूनीसेफ ने 1 जनवरी को जन्म लेने वाले बच्चों के जो आंकड़े जारी किए हैं, उनकी सबसे खास बात यह है कि उस दिन सबसे ज्यादा बच्चों ने भारत में ही जन्म लिया। चीन का नंबर दूसरा है, लेकिन इस मामले में वह भारत से पीछे ही नहीं, बहुत पीछे रह गया। हर उपलब्धि गर्व करने लायक नहीं होती। इतने पीछे चले जाने पर हो सकता है, चीन जरूर गर्व कर रहा हो।ऐसे में अगर भारत सरकार राजनीति लाभ हानि को छोड़कर जनसंख्या वृद्धि रोकने के कारगर और कठोर कदम नही उठाती तो यह आत्मघाती निर्णय होगा। चीन की आबादी अभी भी भारत से अधिक है, लेकिन वह आबादी में वृद्धि की दर को भारत से लगभग आधा नीचे लाने में कामयाब रहा है। अगर हम दोनों देशों की आबादी में वृद्धि दर के ग्राफ को देखें, तो चीन की सफलता को आसानी से समझा जा सकता है। अगर हम 1970 के दशक से थोड़ा पहले देखें, तो चीन की जनसंख्या वृद्धि दर तीन फीसदी के आसपास पहंुच गई थी, जबकि भारत की वृद्धि दर दो फीसदी से कुछ ऊपर थी। लेकिन पिछली लगभग आधी सदी में चीन ने जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करते हुए 0.6 फीसदी तक पहुंचा दिया, जबकि भारत के मामले में यह दर 1.1 फीसदी के आस-पास ही टिकी हुई है। दुनिया भर में हुए आबादी के अध्ययन बताते हैं कि हर समाज में जनसंख्या के बढ़ने का एक पैटर्न होता है। आबादी का ग्राफ एक समय तक लगातार उठने के बाद गिरना शुरू कर देता है। इस समय भारत और चीन, दोनों की ही आबादी गिरावट वाले दौर में है। फर्क इतना है कि भारत की जनसंख्या में यह गिरावट आबादी के गणित के हिसाब से हो रही है, इसलिए सुस्त और धीमी है, जबकि चीन में यह गिरावट के प्राकृतिक गणित को मात दे रही है, क्योंकि इसमें चीन की सरकारों के सघन प्रयास भी अपना असर डाल रहे हैं। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो आबादी नियंत्रण के मामले में जहां चीन कामयाब रहा है, भारत की नाकामी उसे मुंह चिढ़ा रही है। यूनीसेफ के आकड़ो पर गौर करे तो हर साल देश में दो करोड़ 45 लाख बच्चे पैदा होंगे। यानी हम प्रतिवर्ष ऑस्ट्रेलिया की कुल जमा आबादी के बराबर जनसंख्या वृद्धि करेगें। यह मामला सिर्फ करोड़ों बच्चों के जन्म का ही नहीं है, यह उनके लिए जरूरी संसाधन जुटाने की चुनौती का भी है। हमारी आबादी की सघनता दूसरे देशों के मुकाबले पहले ही काफी अधिक है और ग्लोबल वार्मिंग के दौर में अगर यह आगे भी बढ़ती रहती है, तो इससे पैदा होने वाली समस्याएं हमें कई तरह से परेशान करेंगी। हमारे लिए यह चिंता की बात इसलिए भी है कि हम अपनी मौजूदा आबादी का पेट भरने में ही ढेर सारी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं, बेरोजगारी हमारे लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है। इसके साथ ही यह चिंता की बात इसलिए भी है कि अब आबादी नियंत्रण की चर्चा भी देश में बंद हो चुकी है।यदि हम जनसंख्या वृद्धि के विभिन्न आकड़ों पर विश्वास करें तो उसके अनुसार विश्व की जनसंख्या पचास प्रतिशत तक बढ़ेगी और उसके बाद रुक जायेगी। फिर भी, इस पचास प्रतिशत की वृद्धि के कारण जीवन यापन के और साधन तलाशने होंगे और पृथ्वी के संसाधन-स्रोतों को पचास प्रतिशत और दोहन का जोखिम उठाना होगा। यदि इस वृद्धि दर की आर्थिक वृद्धि की दर से तुलना करें तो बहुत सारे अनुमान सामने दिखते हैं। अर्थशास्त्रियों की भविष्यवाणी कर चुके है कि इस शताब्दी में विश्व की आर्थिक विकास दर का औसत तीन प्रतिशत प्रति वर्ष रहेगा । सरकारें इस लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करती रहेंगी। लगातार तीन प्रतिशत की आर्थिक विकास दर को पाने के लिए हर 2-3 वर्ष बाद दोगुनी आर्थिक गतिविधियां करनी पड़ेगी । इस शताब्दी में आर्थिक वृद्धि, पर्यावरण संरक्षण और जनसंख्या वृद्धि के बावजूद 32 गुना ज्यादा हो सकती है यदि बैंक, सरकारें और व्यापार अपने रास्ते पर ठीक ठाक चलते रहे तो। जब संसाधन सीमित हों, तब आर्थिक वृद्धि पाना असंभव भी हो सकता है। जनसंख्या को न देखकर यदि आर्थिक वृद्धि को देखें तो वे खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं। जनसंख्या इसका कारक हो सकता है पर ऐसा नहीं है। समय बदल गया है-अब जनसंख्या वृद्धि गरीब देशों की ही समस्या नहीं है, यह धनी देशों की वृद्धि से जुड़ी है। वे संसाधनों का अत्यधिक उपभोग कर रहे हैं, साथ ही पर्यावरण को नष्ट कर रहे हैं। दरअसल जनसंख्या का बढ़ना ही सारी समस्याओं की जड़ हैं। बढ़ती आबादी के कारण ही खाद्यान्न भंडार खाली हो रहे हैं। ऐसे में भूमि कितना उत्पादन कर पाएगी? सीमित भूमि और निरंतर जनसंख्या का दबाव किसी परमाणु विस्फोट से कम नहीं है। ऐसे में रोटी, कपड़ा और मकान कैसे उपलब्ध होंगे? संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन का मानना है कि 2050 तक खाद्यान्न की पैदावार दुगनी करनी पड़ेगी, तभी भुखमरी से बचा जा सकता है।
भारत बढ़ती जनसंख्या पर गर्व करे या रोए